Sitaare Zameen Par Review: आमिर खान की फिल्म ‘सितारे जमीन पर’ हुआ रिलीज, पढ़ें यहां रिव्यू…

Sitaare Zameen Par Review आमिर खान की ‘तारे जमीन पर’ ने 2007 में जब पर्दे पर दस्तक दी थी तो जैसे हर दर्शक के दिल में कोई तार झनझना उठा था। उस फिल्म ने न सिर्फ एक दुर्लभ विषय को छुआ, बल्कि उसे इतनी मासूमियत और संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया कि वो केवल एक फिल्म नहीं रही, एक अनुभव बन गई। अब 2025 में उसी भावनात्मक विरासत को आगे बढ़ाने का प्रयास करती है ‘सितारे जमीन पर’ आज सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है। ये एक स्पोर्ट्स-कॉमेडी-ड्रामा है और अंग्रेजी फिल्म ‘चैंपियन्स’ का भारतीय संस्करण है। फिल्म की कहानी इमोशनल है, लेकिन कितनी प्रभावी इसके बारे में आपको विस्तार से इस रिव्यू में जानने को मिलेगा। आमिर खान की इस फिल्म में 10 और किरदारों के साथ जेनेलिया डिसूजा मुख्य किरदार में हैं।
कहानी और इमोशनल ढांचा
कहानी गुलशन अरोड़ा (आमिर खान) से शुरू होती है, एक जुनूनी लेकिन स्वाभिमानी जूनियर बास्केटबॉल कोच, जो अपने गुस्सैल स्वभाव के कारण नौकरी से सस्पेंड कर दिया जाता है। उसे एक विकल्प मिलता है, एक सजा के रूप में उसे न्यूरोडाइवरजेंट युवाओं की एक बास्केटबॉल टीम को कोचिंग देनी होगी। पहले तो उसे यह काम हल्के में लेने जैसा लगता है, लेकिन जब वह सुनील, सतबीर, लोटस, गुड्डु, शर्मा जी, करीम, राजू, बंटू, गोलू और हरगोविंद जैसे रंग-बिरंगे, मासूम लेकिन अलग-अलग न्यूरोलॉजिकल स्थितियों से जूझते युवाओं से मिलता है, तब एक नई यात्रा शुरू होती है, खुद को समझने की यात्रा
कहानी का मूल संदेश है-‘साहब, अपना-अपना नॉर्मल होता है’, जो बेहद सरल लेकिन गहरी बात कहता है। यह समाज के उस पक्ष को दिखाता है जिसे हम अक्सर अनदेखा करते हैं, विशेष रूप से चुनौतीपूर्ण लोगों को। फिल्म का एक बड़ा हिस्सा इस बात पर केंद्रित है कि कैसे गुलशन का हृदय परिवर्तन होता है और वह न सिर्फ एक बेहतर कोच, बल्कि एक बेहतर इंसान बनता है।
कितना प्रभावी है भावनात्मक एंगल
‘सितारे जमीन पर’ को देखते समय यह साफ महसूस होता है कि फिल्म दिल से बनाई गई है, लेकिन यह दिल तक पूरी तरह पहुंच नहीं पाती। फिल्म में जो भावनात्मक चढ़ाव और उतार होने चाहिए थे, वे अधिकतर सपाट लगते हैं। जब हम ‘तारे जमीन पर’ में ईशान के आंसुओं के साथ रोते थे, तब वो व्यक्तिगत अनुभव बन जाता था, लेकिन ‘सितारे जमीन पर’ हमें कुछ अलग दिखाती है, जो एक अलग अनुभव है, पर हमारी आत्मा को छूती नहीं, उसमें उतरती नहीं है। शायद इसका कारण यह भी है कि अब दर्शक कहानियों की गहराई को समझने लगे हैं। फिल्म अब सिर्फ उनके मनोरंजन के लिए नहीं रहीं, बल्कि वो उन कहानियों से कुछ अपने साथ लेकर भी जाना चाहते हैं। अब समावेशिता, नियोरोडाइवर्सिची और एंपेथी जैसे विषयों पर कई फिल्में बन चुकी हैं। अब कोई भी सामाजिक मुद्दा फिल्म में रख देने से वो चमत्कार नहीं होता जो ‘तारे जमीन पर’ के समय हुआ था।
स्क्रीनप्ले और निर्देशन
यह सच है कि ‘सितारे जमीन पर’ मूल रूप से स्पैनिश फिल्म ‘Champions’ का अनुवाद है, लेकिन इसके बावजूद फिल्म के निर्देशक ने इसे भारतीय मिट्टी से जोड़ने की पूरी कोशिश की है। चाहे वह पात्रों की बोली हो, उनके खान-पान के तरीके हों या गुलशन की मां प्रीतो (डॉली आहलूवालिया) के साथ उनका रिश्ता, फिल्म कई बार गहराई से भारतीय लगती है। हालांकि पटकथा में नई बात की कमी खलती है। कहानी में ज्यादातर चीजे पहले से आंकी जा सकती हैं, ऐसे में फिल्म प्रेडिक्टेबल बन जाती है। किस मोड़ पर क्या होगा, कौन सा किरदार कब बदल जाएगा, क्लाइमैक्स में क्या होने वाला है। यह पूर्वानुमान ही फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है।
फिल्म की सबसे बड़ी ताकत
अगर फिल्म कुछ बिंदुओं पर कमजोर पड़ती है तो अभिनय उसे सहारा देता है। आमिर खान ने गुलशन के किरदार को एक रिस्ट्रेंड इंटेंसिटी के साथ निभाया है। वह कभी ज्यादा नाटकीय नहीं होते और न ही बिलकुल फीके। उनका परिवर्तन धीरे-धीरे होता है जैसे किसी पत्थर में दरार आती है और फिर भीतर से कुछ नया जन्म लेता है। बच्चों की बात करें तो हर एक कलाकार ने कमाल का प्रदर्शन किया है। आशीष पेंडसे, अरुश दत्ता, आयुष भंसाली, ऋषि शाहनी, वेदांत शर्मा, संवित देसाई और अन्य सभी ने अपने-अपने किरदारों को सच्चाई से निभाया है। इनमें से कोई भी ‘अभिनेता’ नहीं लगता, वे असली लोग लगते हैं, जिनकी जिंदगी को आप परदे पर देख रहे हैं। डॉली आहलूवालिया, प्रीतो के रूप में फिल्म में एक ठहराव लेकर आती हैं। उनका किरदार फिल्म की गहराई में योगदान करता है। यह दिखाने के लिए कि देखभाल करने वाले भी कभी-कभी थकते हैं, उन्हें भी स्नेह चाहिए होता है।
तकनीकी पक्ष
फिल्म का संपादन और सिनेमैटोग्राफी औसत है। कुछ दृश्य बहुत सुंदर हैं, जैसे ट्रेनिंग सीन या बारिश में बच्चों की मस्ती। संगीत पक्ष में कुछ खास नहीं है, लेकिन बैकग्राउंड स्कोर प्रभावशाली है और फिल्म के भावों को थामे रखता है।
फिल्म का प्रभाव और निष्कर्ष
‘Sitaare Zameen Par Reviewसितारे जमीन पर’ को देखकर आपको अच्छा लगेगा। आप शायद मुस्कराएंगे, कुछ दृश्यों में गला भर आएगा. लेकिन क्या आप इसे अपने दिल में लेकर लंबे समय तक चलेंगे, जैसे ‘तारे जमीन पर’ के बाद हुआ था? शायद नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि यह फिल्म देखने लायक नहीं है। यह निश्चित रूप से एक ईमानदार कोशिश है, एक ऐसे समाज में सहानुभूति और समावेशिता के विचार को बढ़ावा देने की, जो अब भी बहुत हद तक इन विचारों से अंजान है। ‘सितारे जमीन पर’ एक दिल से निकली फिल्म है, जो दिल तक पहुंचने की कोशिश करती है